शाम होने को है,
क्षितिज के पास एक जामुनी पर्त सी जमी है-
बिल्कुल वैसे ही, जैसे मेरे मन में तुम्हारी यादों की पर्त जम गई है।
उन काले, घिरते हुए बादलों को देख- तुम याद आ गये।
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तुम्हारा और मेरा रिश्ता कितना अजीब है ना?
वक़्त बदला,मैं और तुम भी बदल गये,
कुछ वक़्त के लिये -
और कुछ वक़्त के साथ!
पर अब भी जब बारिश होती है,
मुझे तुम ही याद आते हो।
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वो पहली बरसात, जो हमने साथ बिताई थी,
याद है ना?
अजनबी थे हम, पर उस बारिश से बचने के लिये हम इतने क़रीब आ गये,
कि तुम्हारे गीले, सफ़ेद कुर्ते पर मेरे जामुनी रंग के दुपट्टे ने एक धब्बा-सा
छोड़ दिया था।
उस कुर्ते को देख,
क्या तुम भी मुझे याद करते हो?
या उसे छज्जे में पड़े किसी कपड़े के ढेर में बंद कर रखा है तुमने?
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अरे देखो तो!
बारिश भी शुरू हो गई है!
उफ़, गीली मिट्टी की ये महक...
"सुनो! तुम्हें ना लोग पागल समझेंगे!"- तुम कहते थे,
और अपनी नई बुक को सूँघती, मैं -
नाक सिकोड़, ग़ुस्से से, तुम्हारी ओर देखती!
पर तुम्हें हर बार पता होता था
कि मेरा ग़ुस्सा तो बस दिखावे भर का था।
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फिर क्यों तुम उस बार मेरा ग़ुस्सा नहीं समझ पाये?
हमारे बीच के हर अनकहे रिश्ते को पीछे छोड़, जब मैं आगे बढ़ी,
क्यों नहीं रोक पाये?
सब कुछ शायद तुम्हारी चुप्पी के साथ ही बदल गया था,
कुछ तुम बदले,
और कुछ मैं!
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मेरे उस जामुनी दुपट्टे से आज भी रंग छूटता है,
शायद इसलिये मैंने सफ़ेद रंग पहनना -
छोड़ दिया है!
-
S.
अच्छी कविता
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