Wednesday, 26 April 2017

कुछ अनकहा सा

क्या चाहती हो तुम?
कौन? मैं ?
आप सोचते होंगे कौन है ये?
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मैं - मीरा।
या शायद शबनम!
नाम में क्या रखा है?
तुम्हारे लिये मेरी केवल एक ही पहचान है- कि मैं एक स्त्री हूँ।
जब चाहा रौंदा, जब मन चाहा खींचा और फेंक दिया।
तुम मुझसे व्यर्थ में प्रश्न कर रहे हो।
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क्या तुम समझ सकोगे कि थोड़ा सुकून चाहती हूँ!
अपने ही घर में बिना किसी डर, बिना रस्सियों में जकड़े सांसे लेना चाहती हूँ।
मुझे आदत है।
सम्भाले जाने की- कभी बाबा ने सम्भाला तो कभी भाई ने,
पर क्या मैं सक्षम नहीं, अपनी रक्षा करने में।
दूसरों से तो हर पल लड़ी मैं ,
पर अपने घर में - हॉ इन चार दीवारों के भीतर किस तरह छिपूँ मैं ?
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तागा तागा कर जब मेरी पोशाक उतारी जाती है...
जब उन नज़रों में अपने लिये स्नेह नहीं, लोभ देखती हूँ -
उसे अनदेखी करना चाहती हूँ ।
जब साथ चलते उनके हाथ ग़लती से ही इस क़दर मुझे छूते हैं कि मेरी रूह कॉप जाती है,
उस गहरी सॉस को वहीं रोक देना चाहती हूँ।
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मुझे घृणा होती है- कि क्यूँ मुझे स्त्री बनाया!
क्यों माँ बन पाने की अनमोल भेंट दी?
क्यों मेरे अंदर इतना प्रेम दिया कि सर्वोपरि सबका भला सोचूँ?
यही तो मेरा काल हुया!
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मैं मीरा!
या शायद शबनम!
पर तुम्हारे लिये मैं केवल एक जिस्म ही रही।


-

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